युवा पत्रकार विवेकानंद सिंह अपनी लेखनी में खास पहचान रखते हैं. चाहे रपट हो, लेख हो, आलेख हो, रिपोर्ताज हो, कहानी-कविता हो, सबमें इनकी जबरदस्त पकड़ है. प्रस्तुत है IIMC पासआउट विवेकानंद की फेसबुक वाल से ली गयी कविता…
हम बेचते हैं
बिकी हुई चीजों को
एक बार नहीं, बार-बार
तब तक बेचते हैं
जब तक कि
वह बिकने लायक न हो जाये…
हम बेचते हैं
क्योंकि हम बेबस हैं
स्कूल की फीस, राशन
मां-बाबूजी की दवाई
और पत्नी, बच्चों की छोटी-छोटी
मांगों की पूर्ति के लिए बेचते हैं…
हम बेचते हैं
आपको क्या लगता है?
किसको बेचते हैं?
अरे साहब, आपको बेचते हैं?
क्या आप नहीं बेचते?
अरे छोड़िये!
आप भी तो बेचते हैं…
हम सब बेचते हैं,
जिसका ज्यादा बिकता है
वह ज्यादा हंसता है
जिसका कम बिकता है
वह कम हंसता है
लेकिन सोचिए
जिसका बिकता ही नहीं होगा,
उसका क्या?
या फिर जिसके पास
बेचने के लिए कुछ है ही नहीं
वह कैसे जी रहा होगा…
लेकिन जानते हैं
वह भी पांच साल में
एक बार बेचता है
कभी जान कर, तो कभी अनजाने में
मैंने कहा न कि
हम सब बेचते हैं
खूब बेचिए
गाय बेचिए, भैंस बेचिए
खाकी बेचिए, खादी बेचिए
धर्म बेचिए, जाति बेचिए
जिंदा बेचिए, मुर्दा बेचिए
अरुणाचल बेचिए, कश्मीर बेचिए
अरे साहब
सब कुछ बेचिए
बस इतना-सा ध्यान रखिएगा कि
बेचते-बेचते किसी दिन
आपका ‘जमीर’ न बिक जाये?